
अनिवार्य अटेंडेंस नियमों पर फिर से विचार करें कॉलेज और विश्वविद्यालय, 8 साल पहले छात्र की खुदकुशी पर कोर्ट ने दी सलाह
दिल्ली उच्च न्यायालय ने बुधवार को कहा कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अनिवार्य अटेंडेंस के नियमों पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि कोविड-19 महामारी के बाद पढ़ने-पढ़ाने के तौर तरीके काफी हद तक बदल गए हैं। अदालत ने कहा कि विद्यार्थियों का मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है, इसलिए उपस्थिति आवश्यकताओं पर विचार करते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा तथा शैक्षणिक संस्थानों में शिकायत निवारण तंत्र और सहायता प्रणाली की भूमिका को सुव्यवस्थित करने की आवश्यकता है।न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह और न्यायमूर्ति अमित शर्मा की पीठ ने कहा कि स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में उपस्थिति की आवश्यकता को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए या नहीं, इस मुद्दे को किसी विशिष्ट पाठ्यक्रम, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय या संस्थान तक सीमित करने के बजाय इसका उच्च स्तर पर समाधान किया जाना चाहिए। पीठ ने कहा कि कम उपस्थिति के लिए विद्यार्थियों को दंडित करने के बजाय उन्हें कक्षाओं में उपस्थित होने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।अदालत ने कहा कि वह इन सभी कारकों का अध्ययन करने तथा उसके समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए एक समिति गठित करने के लिए इच्छुक है, ताकि स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों तथा उनमें उपस्थिति संबंधी आवश्यकताओं के लिए कुछ समान पद्धतियां विकसित की जा सकें।उच्च न्यायालय सितंबर 2016 में उच्चतम न्यायालय द्वारा शुरू की गई याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें 'एमिटी लॉ यूनिवर्सिटी' के एक छात्र द्वारा कथित आत्महत्या का मामला शामिल था। मार्च 2017 में यह मामला दिल्ली उच्च न्यायालय को स्थानांतरित कर दिया गया था।एमिटी विश्वविद्यालय के तीसरे वर्ष के विधि के छात्र सुशांत रोहिल्ला ने 10 अगस्त 2016 को अपने घर पर फांसी लगा ली थी, क्योंकि विश्वविद्यालय ने कथित तौर पर उसे अपेक्षित उपस्थिति की कमी के कारण सेमेस्टर परीक्षाओं में बैठने से रोक दिया था। उसने एक नोट छोड़ा था जिसमें लिखा था कि वह असफल है और जीना नहीं चाहता।
Disclaimer: This story is auto-aggregated by a computer program and has not been created or edited by Learningcity. Publisher: livehindustan